Sunday 15 April 2018

वृंदावन के बांके बिहारी

वृंदावन में बाँकेबिहारी जी मंदिर में बिहारी जी की काले रंग
की प्रतिमा है। इस प्रतिमा के विषय में मान्यता है कि इस
प्रतिमा में साक्षात् श्रीकृष्ण और राधाजी समाहित हैं , इसलिए
इनके दर्शन मात्र से राधा-कृष्ण के दर्शन के फल की प्राप्ति होती है ।
इस प्रतिमा के प्रकट होने की कथा और लीला बड़ी ही रोचक और
अद्भुत है, इसलिए हर वर्ष मार्गशीर्ष मास
की पंचमी तिथि को बाँकेबिहारी मंदिर में
बाँकेबिहारी प्रकटोत्सव मनाया जाता है।
बाँकेबिहारी जी के प्रकट होने की कथा-संगीत सम्राट तानसेन के गुरु
स्वामी हरिदास जी भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे। वृंदावन में
स्थित श्रीकृष्ण की रास-स्थली निधिवन में बैठकर भगवान को अपने
संगीत से रिझाया करते थे। भगवान की भक्ति में डूबकर हरिदास
जी जब भी गाने बैठते तो प्रभु में ही लीन हो जाते। इनकी भक्ति और
गायन से रीझकर भगवान श्रीकृष्ण इनके सामने आ गये। हरिदास
जी मंत्रमुग्ध होकर श्रीकृष्ण को दुलार करने लगे। एक दिन इनके एक
शिष्य ने कहा कि आप अकेले ही श्रीकृष्ण का दर्शन लाभ पाते हैं, हमें
भी साँवरे सलोने का दर्शन करवाइये। इसके बाद हरिदास
जी श्रीकृष्ण की भक्ति में डूबकर भजन गाने लगे। राधा-कृष्ण की युगल
जोड़ी प्रकट हुई और अचानक हरिदास के स्वर में बदलाव आ गया और
गाने लगे-
भाई री सहज जोरी प्रकट भई,
जुरंग की गौर स्याम घन दामिनी जैसे।
प्रथम है हुती अब हूँ आगे हूँ रहि है न टरि है तैसे।
अंग-अंग की उजकाई सुघराई चतुराई सुंदरता ऐसे।
श्री हरिदास के स्वामी श्यामा पुंज बिहारी सम वैसे वैसे।
श्रीकृष्ण और राधाजी ने हरिदास के पास रहने की इच्छा प्रकट की।
हरिदास जी ने कृष्णजी से कहा कि प्रभु मैं तो संत हूँ। आपको लंगोट
पहना दूँगा लेकिन माता को नित्य आभूषण कहाँ से लाकर दूँगा। भक्त
की बात सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कराए और राधा-कृष्ण की युगल
जोड़ी एकाकार होकर एक विग्रह के रूप में प्रकट हुई। हरिदास जी ने
इस विग्रह को ‘बाँकेबिहारी’ नाम दिया। बाँके बिहारी मंदिर में
इसी विग्रह के दर्शन होते हैं। बाँके बिहारी के विग्रह में राधा-कृष्ण
दोनों ही समाए हुए हैं, जो भी श्रीकृष्ण के इस विग्रह का दर्शन
करता है, उसकी मनोकामनाएँ पूरी होती हैं।
कुंजबिहारी...श्री हरिदास....

Thursday 16 November 2017

   *🌱चना  खेती🌱*    

*🌱किसान अॅग्रि टेक्नॉलॉजी ♻*
           *(इंडिया.प्रा.लि.)*
        *🌱चना  खेती🌱*
   
      *श्री टी.वाय. मिर्झा*
चना  भारत की सबसे महत्वपूर्ण दलहनी फसल है। चने को दालों का राजा कहा जाता है। पोषक मान की दृष्टि से चने के 100 ग्राम दाने में औसतन 11 ग्राम पानी, 21.1 ग्राम प्रोटीन, 4.5 ग्रा. वसा, 61.5 ग्रा. कार्बोहाइड्रेट, 149 मिग्रा. कैल्सियम, 7.2 मिग्रा. लोहा, 0.14 मिग्रा. राइबोफ्लेविन तथा 2.3 मिग्रा. नियासिन पाया जाता है। चने का प्रयोग दाल एवं रोटी के लिए किया जाता है। चने को पीसकर बेसन तैयार किया जाता है ,जिससे विविध व्यंजन बनाये जातेहैं। चने की हरी पत्तियाँ साग बनाने, हरा तथा सूखा दाना सब्जी व दाल बनाने में  प्रयुक्त होता है।  दाल से अलग किया हुआ छिलका और  भूसा भी पशु चाव से खाते है । दलहनी फसल होने के कारण यह जड़ों में वायुमण्डलीय नत्रजन स्थिर करती है,जिससे खेत त की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। भारत में चने की खेती मुख्य रूप  से महाराष्ट्र ,उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब व गुजरात, कर्नाटक,में की जाती है। देश के कुल चना क्षेत्रफल का लगभग 90 प्रतिशत भाग तथा कुल उत्पादन का लगभग 92 प्रतिशत इन्ही प्रदेशाें से प्राप्त होता है। भारत में चने की खेती 7.54 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में की जाती है जिससे 7.62 क्विं./हे. के औसत मान से 5.75 मिलियन टन उपज प्राप्त होती है। भारत में सबसे अधिक चने का क्षेत्रफल एवं उत्पादन वाला राज्य मध्यप्रदेश है छत्तीसगढ़  तथा महाराष्ट्र प्रान्त के मैदानी जिलो में चने की खेती असिंचित अवस्था में की जाती है। 

         *🌱जलवायु🌱*
चना एक शुष्क एवं ठण्डे जलवायु की फसल है जिसे रबी मौसम में उगाया जाता हे। चने की खेती के लिए मध्यम वर्षा (60-90 से.मी. वार्षिक वर्षा) और सर्दी वाले क्षेत्र सर्वाधिक उपयुक्त है। फसल में फूल आने के बाद वर्षा होना हानिकारक होता है, क्योंकि वर्षा के कारण फूल परागकण एक दूसरे से चिपक जाते जिससे बीज नही बनते है। इसकी खेती के लिए 24-300सेल्सियस तापमान उपयुक्त माना जाता है। फसल के दाना बनते समय 30 सेल्सियस से कम या 300 सेल्सियस से अधिक तापक्रम हानिकारक रहता है।

    *🌱भूमि का चुनाव🌱*
 सामान्यतौर पर चने की खेती हल्की से भारी भूमियों में की जाती है,किंतु अधिक जल धारण क्षमता एवं उचित जल निकास वाली भूमियाँ सर्वोत्तम रहती है। महाराष्ट्र की भूमि इसकी खेती हेतु उपयुक्त है। मृदा का पी-एच मान 6-7.5 उपयुक्त रहता है। चने की ख्¨ती के लिए अधिक उपजाऊ भूमियाँ उपयुक्त नहीं होती,क्योंकि उनमें फसल की बढ़वार अधिक हो जाती है जिससे  फूल एवं फलियाँ कम बनती हैं।

*🌱भूमि की तैयारी🌱*
अंसिचित अवस्था में मानसून शुरू होने से पूर्व गहरी जुताई करने से रबी के लिए भी नमी संरक्षण होता है। एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल तथा 2 जुताई देशी हल से की जाती है। फिर पाटा चलाकर खेत को समतल कर लिया जाता है। दीमक प्रभावित खेतों में क्लोरपायरीफास मिलाना चाहिए इससे कटुआ कीट पर भी नियंत्रण होता है।  चना  की खेती के  लिए मिट्टी का बारीक होना आवश्यक नहीं है, बल्कि ढेलेदार खेत ही चने की उत्तम फसल के  लिए अच्छा समझा जाता है । खरीफ फसल कटने के बाद नमी की पर्याप्त मात्रा  होने पर एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा दो जुताइयाँ देशी हल या ट्रेक्टर से की जाती है और फिर पाटा चलाकर खेत समतल कर लिया जाता है।  दीमक प्रभावित खेतों में क्लोरपायरीफास 1.5 प्रतिशत चूर्ण 20 किलो प्रति हेक्टर के हिसाब से जुताई के दौरान मिट्टी में मिलना चाहिए। इससे कटुआ कीट पर भी नियंत्रण होता है।

*🌱उन्नत किस्म🌱*
 देशी चने का रंग पीले से गहरा कत्थई या काले तथा दाने का आकार छोटा होता है। काबुली चने का रंग प्रायः सफेद होता है। इसका पौधा देशी चने से लम्बा होता है। दाना बड़ा तथा उपज देशी चने की अपेक्षा कम होती है। महाराष्ट्र के लिए अनुशंसित चने की प्रमुख किस्मों की विशेषताएँ यहां प्रस्तुत है:

वैभव: इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित यह किस्म महाराष्ट्र ,उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब व गुजरात, छत्तीसगढ़  के लिए उपयुक्त है। यह किस्म 110 - 115 दिन में  पकती है। दाना बड़ा, झुर्रीदार तथा कत्थई रंग का होता है।  उतेरा के लिए भी यह उपयुक्त है। अधिक तापमान, सूखा और उठका निरोधक किस्म है,जो सामान्यतौर पर 15 क्विंटल तथा देर से बोने पर 13 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है

जेजी-74: यह किस्म 110-115 दिन में  तैयार हो जाती है । इसकी पैदावार लगभग 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। 
उज्जैन 21: इसका बीज खुरदरा होता है। यह जल्दी पकने वाली जाति है जो 115 दिन में तैयार हो जाती है। उपज 8 से 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। दाने में 18 प्रतिशत प्रोटीन होती है

राधे: यह किस्म 120 - 125 दिन में पककर तैयार होती है । यह 13 से 17 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज होती है

जे. जी. 315: यह किस्म 125 दिन में पककर तैयार हो जाती है। औसतन उपज 12 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।  बीज का रंग बादामी, देर से बोनी हेतु उपयुक्त है

जे. जी. 11: यह 100 - 110 दिन में पककर तैयार होने वाली नवीन किस्म है । कोणीय आकार का बढ़ा बीज  होता है। औसत उपज 15 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। रोग रोधी किस्म है जो सिंचित व असिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है

जे. जी. 130: यह 110 दिन में पककर तैयार होने वाली नवीन किस्म है। पौधा हल्के फैलाव वाला, अधिक शाखाएँ, गहरे गुलाबी फूल, हल्का बादामी चिकना  है। औसत उपज 18 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है

बीजी-391: यह चने की देशी बोल्ड दाने वाली किस्म है जो  110-115 दिन में तैयार होती है तथा प्रति हेक्टेयर 14-15 क्विंटल उपज देती है । यह उकठा निर¨धक किस्म है

जेएकेआई-9218: यह भी देशी चने की बोल्ड दाने  की किस्म है । यह 110-115 दिन में तैयार होकर 19-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है । उकठा रोग प्रतिरोधक किस्म है

विशाल: चने की यह सर्वगुण सम्पन्न किस्म है जो कि 110 - 115 दिन में तैयार हो जाती है। इसका दाना पीला, बड़ा एवं उच्च गुणवत्ता वाला होता है । दानों से सर्वाधिक (80%) दाल प्राप्त होती है। अतः बाजार भाव अधिक मिलता है। इसकी उपज क्षमता 35क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है

काबुली चना
काक-2: यह  120-125  दिनों में पकने वाली किस्म है । इसकी औसत उपज 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। यह भी उकठा निरोधक किस्म है

श्वेता (आई.सी.सी.व्ही. - 2): काबुली चने की इस किस्म का दाना आकर्षक मध्यम आकार  का होता है। फसल 85 दिन में तैयार होकर औसतन 13 - 20 क्विंटल उपज देती है। सूखा और सिंचित क्षेत्रों के लिए उत्तम किस्म है। छोला अत्यंत स्वादिष्ट तथा फसल शीघ्र तैयार होने के कारण बाजार भाव अच्छा प्राप्त होता है

जेजीके-2: यह काबुली चने की 95-110 दिन में तैयार होने वाली  उकठा निरोधक किस्म है जो  कि 18-19 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है

मेक्सीकन बोल्ड: यह सबसे बोल्ड  सफेद, चमकदार और आकर्षक चना है। यह 90 - 95 दिन में पककर तैयार हो जाती है बड़ा और स्वादिष्ट दाना होने के कारण बाजार भाव सार्वाधिक मिलता है। औसतन 25 - 50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। यह कीट, रोग व सूखा सहनशील किस्म है

*हरा चना*
जे.जी.जी.1: यह किस्म 120 - 125 दिन में पककर तैयार होने वाली हरे चने की किस्म है। औसतन उपज 13 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।

हिमा: यह किस्म 135 - 140 दिन में पककर तैयार हो जाती है एवं औसतन 13 से 17 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। इस किस्म का बीज छोटा होता है 100 दानों का वजन 15 ग्राम है।

*🌱बीज की मात्रा🌱*
चने की समय पर बोआई करने के लिए देशी चना (छोटा दाना) 75 - 80 कि.ग्रा/हे. तथा देशी चना (मोटा दाना) 80 - 10 कि.ग्रा./हे., काबुली चना (मोटा दाना) - 100 से 120 कि.ग्रा./हे. की दर से बीज का प्रयोग करना चाहिए। पछेती बुवाई हेतु देशी चना (छोटा दाना) - 80 - 90 किग्रा./हे. तथा देशी चना (मोटा दाना) - 100 से 110 कि.ग्र./हे. तथा उतेरा पद्धति से बोने के लिए 100 से 120 किग्रा./हे. बीज पर्याप्त रहता है। सामान्य तौर बेहतर उपज के लिए   प्रति हेक्टेयर लगभग 3.5 से 4 लाख की पौध सख्या अनुकूल मानी जाती है।

*🌱बुवाई का समय व विधि🌱*
चने की बुआई समय पर करने से फसल की वृद्धि अच्छी होती है साथ ही कीट एवं बीमारियों से फसल की रक्षा होती है, फलस्वरूप उपज अच्छी मिलती है । अनुसंधानो  से ज्ञात होता है कि  20 से 30 अक्टूबर तक चने की बुवाई करने से सर्वाधित उपज प्राप्त होती है। असिंचित क्षेत्रों में अगेती बुआई सितम्बर के अन्तिम सप्ताह से अक्टूबर के तृतीय सप्ताह तक करनी चाहिए। सामान्यतौर पर अक्टूबर अंत से नवम्बर का पहला पखवाड़ा बोआई के लिए सर्वोत्तम रहता है। सिंचित क्षेत्रों में पछेती बोआई दिसम्बर के तीसरे सप्ताह तक संपन्न कर लेनी चाहिए। उतेरा पद्धति से बोने हेतु अक्टूबर का दूसरा पखवाड़ा उपयुक्त पाया गया है।
धान कटाई के बाद दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक चने की बोआई की जा सकती है,जिसके लिए जे. जी. 75, जे. जी. 315, भारती, विजय, अन्नागिरी आदि उपयुक्त किस्में है । बूट हेतु चने की बोआई सितम्बर माह के अंतिम सप्ताह से अक्टूबर माह के प्रथम सप्ताह तक की जाती है। बूट हेतु चने की बड़े दाने वाली किस्में जैसे वैभव, पूसा 256, पूसा 391, विश्वास, विशाल, जे.जी. 11 आदि लगाना चाहिए।

*🌱सिंचाई 🌱*
आमतौर पर चने की खेती असिंचित अवस्था में की जाती है। चने की फसल के लिए कम जल की आवश्यकता होती है। चने में जल उपलब्धता के आधार पहली सिंचाई फूल आने के पूर्व अर्थात बोने के 45 दिन बाद एवं दूसरी सिंचाई दाना भरने की अवस्था पर अर्थात बोने के 75 दिन बाद करना चाहिए।

*🌱खाद एवं उर्वरक 🌱*
भूमि से 4 कि ग्रा *अँक्झिनो-111*
या 2 कि.ग्रा. *अँक्झिनो-222* या 3 कि.ग्रा. *अँक्झिनो-444*  और *अँक्झिनो-333* 1-2 कि.ग्रा. अधिकतम उपज के लिए पोषक तत्वों की पूर्ति खाद एवं उर्वरकों के माध्यम से करना आवष्यक है। गोबर की खाद या कम्पोस्ट पाँच टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत की तैयारी के समय देना चाहिए।
उर्वरक की पूरी मात्रा बोवाई के समय कूंड में बीज के नीचे 5-7 से.मी. की गहराई पर देना लाभप्रद रहता है। मिश्रित फसल के साथ चने की फसल को अलग से खाद देने की आवष्यकता नहीं रहती है।

*🌱कीट नियंत्रण 🌱*
कटुआ : चने की फसल को अत्यधिक नुकसान पहुँचाता है। इसकी रोकथाम के लिए 20 कि.ग्रा./हे. की दर से क्लोरापायरीफॉस भूमि में मिलाना चाहिए।
फली छेदक : इसका प्रकोप फली में दाना बनते समय अधिक होता हैं नियंत्रण नही करने पर उपज में 75 प्रतिशत कमी आ जाती है। इसकी रोकथाम के लिए मोनाक्रोटोफॉस 40 ई.सी 1 लीटर दर से 600-800 ली. पानी में घोलकर फली आते समय फसल पर छिड़काव करना चाहिए।

*🌱चने के उकठा रोग नियंत्रण*🌱
उकठा रोग निरोधक किस्मों का प्रयोग करना चाहिए।
प्रभावित क्षेत्रो में फल चक्र अपनाना लाभकर होता है।
प्रभावित पोधा को उखाडकर नष्ट करना अथवा गढ्ढे में दबा देना चाहिये।
बीज को कार्बेन्डाजिम 2.5 ग्राम या ट्राइकोडर्मा विरडी 4 ग्राम/किलो बीज की दर से उपचारित कर बोना चाहिए।

*🌱उपज एवं भण्डारण🌱*
चने की शुध्द फसल को प्रति हेक्टेयर लगभग 20-25 क्विं. दाना एवं इतना ही भूसा प्राप्त होता है। काबूली चने की पैदावार देशी चने से तुलना में थोडा सा कम देती है। भण्डारण के समय 10-12 प्रतिशत नमी रहना चाहिए

*कृषि विज्ञानी व सलाहकार* 
       *श्री टी.वाय. मिर्झा*
ध्वनि क्रमांक: *9881139310*
*🌱किसान अॅग्रि टेक्नॉलॉजी ♻*
           *(इंडिया.प्रा.लि.)*

Saturday 14 October 2017

आधुनिक तरीके से करें सब्जियों की खेती

साग-सब्जियों का हमारे दैनिक भोजन में महत्वपूर्ण स्थान है। विशेषकर शाकाहारियों के जीवन में। साग-सब्जी भोजन में ऐसे पोषक तत्वों के स्रोत हैं, हमारे स्वास्थ्य को ही नहीं बढ़ाते, बल्कि उसके स्वाद को भी बढ़ाते हैं। पोषाहार विशेषज्ञों के अनुसार संतुलित भोजन के लिए एक वयस्क व्यक्ति को प्रतिदिन 85 ग्राम फल और 300 ग्राम साग-सब्जियों का सेवन करना चाहिए, परंतु हमारे देश में साग-सब्जियों का वर्तमान उत्पादन स्तर प्रतिदिन, प्रतिव्यक्ति की खपत के हिसाब से मात्र 120 ग्राम है। इसलिए हमें इनका उत्पादन बढ़ाना चाहिए।

ऐसे बनाएं सब्जी बगीचा

स्वच्छ जल के साथ रसोईघर एवं स्नानघर से निकले पानी का उपयोग कर घर के पिछवाड़े में उपयोगी साग-सब्जी उगाने की योजना बना सकते है। इससे एक तो एकित्रत अनुपयोगी जल का निष्पादन हो सकेगा और दूसरे उससे होने वाले प्रदूषण से भी मुक्ति मिल जाएगी। साथ ही, सीमित क्षेत्र में साग-सब्जी उगाने से घरेलू आवश्यकता की पूर्ति भी हो सकेगी। सबसे अहम बात यह कि सब्जी उत्पादन में रासायनिक पदार्थों का उपयोग करने की जरूरत भी नहीं होगी। यह एक सुरिक्षत पद्धति है तथा उत्पादित साग-सब्जी कीटनाशक दवाईयों से भी मुक्त होंगे।

पौधे लगाने के लिए खेत की तैयारी

सर्वप्रथम 30-40 सेंटीमीटर की गहराई तक कुदाली या हल की सहायता से जुताई करें। खेत से पत्थर, झाड़ियों एवं बेकार के खर-पतवार को हटा दें। खेत में अच्छे ढंग से निर्मित 100 किलोग्राम कृमि खाद चारों ओर फैला दें। आवश्यकता के अनुसार 45 सेंटीमीटर या 60 सेंमी की दूरी पर मेड़ या क्यारी बनाएं।

बुआई और पौध रोपण

सीधे बुआई की जाने वाली सब्जी जैसे - भिंडी, बीन एवं लोबिया आदि की बुआई मेड़ या क्यारी बनाकर की जा सकती है। दो पौधे 30 सेमी. की दूरी पर लगाई जानी चाहिए। प्याज, पुदीना एवं धनिया को खेत के मेड़ पर उगाया जा सकता है। प्रतिरोपित फसल, जैसे - टमाटर, बैगन और मिर्ची आदि को एक महीना पूर्व में नर्सरी बेड या मटके में उगाया जा सकता है। 

बुआई के बाद मिट्टी से ढंककर उसके ऊपर 250 ग्राम नीम के फली का पाउडर बनाकर छिड़काव किया जाता है ताकि इसे चीटियों से बचाया जा सके। टमाटर के लिए 30 दिनों की बुआई के बाद तथा बैगन, मिर्ची तथा बड़ी प्याज के लिए 40-45 दिनों के बाद पौधे को नर्सरी से निकाल दिया जाता है। 

टमाटर, बैगन और मिर्ची को 30-45 सेंमी की दूरी पर मेड़ या उससे सटाकर रोपाई की जाती है। बड़ी प्याज के लिए मेड़ के दोनों ओर 10 सेमी. की जगह छोड़ी जाती है। रोपण के तीसरे दिन पौधों की सिंचाई की जाती है। प्रारंभिक अवस्था में इस प्रतिरोपण को दो दिनों में एक दिन बाद पानी दिया जाए तथा बाद में चार दिनों के बाद पानी दिया जाए।

सब्जी बगीचा का मुख्य उद्देश्य अधिकतम लाभ प्राप्त करना है तथा वर्षभर घरेलू साग-सब्जी की आवश्यकता की पूर्ति करना है।

1. कुछ पद्धतियों को अपनाते हुए इस लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है।
2. बगीचा के एक छोर पर बारहमासी पौधों को उगाएं। इससे इनकी छाया अन्य फसलों पर न पड़े तथा अन्य साग-सब्जी फसलों को पोषण दे सकें।
3. बगीचा के चारों ओर तथा आने-जाने के रास्ते का उपयोग विभिन्न अल्पाविध हरी साग-सब्जी जैसे - धनिया, पालक, मेथी, पुदीना आदि उगाने के लिए किया जा सकता है।

सब्जी बगीचा के लिए स्थल चयन

सब्जी बगीचा के लिए स्थल चयन में सीमित विकल्प है। हमेशा अंतिम चयन घर का पिछवाड़ा ही होता है जिसे हम लोग बाड़ी भी कहते हैं। यह सुविधाजनक स्थान होता है क्योंकि परिवार के सदस्य खाली समय में साग-सब्जियों पर ध्यान दे सकते हैं तथा रसोईघर व स्नानघर से निकले पानी आसानी से सब्जी की क्यारी की ओर घुमाया जा सकता है। सब्जी बगीचा का आकार भूमि की उपलब्धता और व्यक्तियों की संख्या पर निर्भर करता है।

सब्जी बगीचा के आकार की कोई सीमा नहीं है परंतु सामान्य रूप से वर्ग की अपेक्षा समकोण बगीचा को पसंद किया जाता है। चार या पांच व्यक्ति वाले औसत परिवार के लिए 1/20 एकड़ जमीन पर की गई सब्जी की खेती पर्याप्त हो सकती है।

बारहमासी खेत

सहजन की पल्ली, केला, पपीता, कढ़ी पता उपरोक्त फसल व्यवस्था से यह पता चलता है कि वर्षभर बिना अंतराल के प्रत्येक खेत में कोई-न-कोई फसल अवश्य उगाई जा सकती है। साथ ही, कुछ खेत में एक साथ दो फसलें (एक लंबी अविध वाली और दूसरी कम अविध वाली) भी उगाई जा सकती है। सब्जी बगीचा निर्माण के आर्थिक लाभ व्यक्ति पहले अपने परिवार का पोषण करता उसके बाद बेचता है।

आवश्यकता से अधिक होने पर उत्पाद को बाजार में बेच देता है या उसके बदले दूसरी सामग्री प्राप्त कर लेता है। कुछ मामले में घरेलू बगीचा आय सृजन का प्राथमिक उद्देश्य बन सकता है। अन्य मामले में, यह आय सृजन उद्देश्य के बजाय पारिवारिक सदस्यों के पोषण लक्ष्य को पूरी करने में मदद करता है। इस तरह, यह आय सृजन और पोषाहार का दोहरा लाभ प्रदान करता है।

फसल पद्धति

भारतीय परिस्थितियों के अनुसार सब्जी बगीचा के लिए सहायक फसल पद्धति को इस प्रकार अपनाएं :

सब्जी का नाम

बुआई/रोपे जाने का महीना

टमाटर एवं प्याज

जून-सितंबर

मूली

अक्टूबर-नंबर

बीन

दिसंबर-फरवरी

भिंडी (ओकरा)

मार्च-मई

बैंगन

अक्टूबर-नवंबर

टमाटर

जून-सितंबर

अमरांतस

मई

मिर्ची और मूली

जून-सितंबर

लोबिया

दिसंबर-फरवरी

प्याज (बेल्लारी)

मार्च-मई

भिंडी और मूली

जून-अगस्त

पत्तागोभी

सितंबर-दिसंबर

बीन

जनवरी-मार्च

बेल्लारी प्याज

जून-अगस्त

शक्कर कंद

सितंबर-नवंबर

टमाटर

दिसंबर-मार्च

प्याज

अप्रैल-मई

बीन

जून-सितंबर

बैगन और शक्करकंद

अक्टूबर-जनवरी

बेल्लारी प्याज

जुलाई-अगस्त

गाजर

सितंबर-दिसंबर

कद्दू (छोटा)

जनवरी-मई

लब-लब (झाड़ी की तरह)

जनवरी-अगस्त

प्याज

सितंबर-दिसंबर

मशरूम क्या है . बीज (स्पान) तैयार करना तथा फसल प्रबंधन

मशरूम उत्पादन : रोजगार का साधन

मशरूम विशेष प्रकार की फफूंदों का फलनकाय है, जिसे फुटु, छत्तरी, भिभौरा, छाती, कुकुरमुत्ता, ढिगरी आदि नामों से जाना जाता है। मशरूम खेतों में, मेढ़ों में, वनों में प्राकृतिक रूप से विभिन्न प्रकार के माध्यमों में निकलते है। इनमें खाद्य, अखाद्य, चिकित्सीय, जहरीले एव अन्य मशरूम होते है। खाद्य मशरूम ग्रामीणों द्वारा बहुतायत में पसंद किये जाते है। वैज्ञानिकों ने इन जंगली मशरूमों को एकत्र कर प्रयोगशाला में इनके विकास का पूर्णरूपेण अध्ययन किया एवं इनकी उत्पादन विधि विकसित की। आज अनेक प्रकार के मशरूम को न केवल प्रयोगशाला में उगाया जा रहा है, वरन उनकी व्यावसायिक खेती कर उनका निर्यात एवं आयात कर कृषि अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ किया जा रहा है। मशरूम उत्पादन में भारतवर्ष पिछड़ा है। यहाँ पर मशरूम अनुसंधान एवं उत्पादन वृद्धि दर संतोषप्रद है भारतवर्ष में आज लगभग 1.00 लाख टन मशरूम का उत्पादन हो रहा है, जिसमें 85 प्रतिशत हिस्सा सफ़ेद बटन मशरूम का है। दूसरे क्रम में आयस्टर, पैरा मशरूम एवं दूधिया मशरूम है।

मशरूम क्या है

मशरूम “कुकुरमुत्ता” नहीं अपितु फफूंदों का फलनकाय है, जो पौष्टिक, रोगरोधक, स्वादिष्ट तथा विशेष महक के कारण आधुनिक युग का एक महत्वपूर्ण खाद्य आहार है। बिना पत्तियों के, बिना कलिका, बिना फूल के भी फल बनाने की अदभूत क्षमता, जिसका प्रयोग भोजन के रूप में, टानिक के रूप में औषधि के रूप में सम्पूर्ण उत्पत्ति बहुमूल्य है। प्रथम पंक्ति मशरूम की आकारिकी एवं दैहिक कार्यों का वर्णन करती है एवं दूसरी पंक्ति इसमें निहित पौष्टिक एवं औषधीय गुणों की विशेषता बताती है।

मौसम की अनुकूलता एवं सघन वनों के कारण भारतवर्ष में पर्याप्त प्राकृतिक मशरूम निकलता है। ग्रामीणजन इसका बड़े चाव से उपयोग करते है। उनकी मशरूम के प्रति विशेष रूचि है इसीलिये इन क्षेत्रों में व्यावसायिक स्तर पर उत्पादित आयस्टर एवं पैरा मशरूम की अधिक मांग है। कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र में किये गये अनुसंधान कार्य से यह निष्कर्ष निकाला गया है की इस क्षेत्र में व्यावसायिक स्तर पर चार प्रकार के मशरूम उगाये जा सकते है:

क्र.सं.
व्यावसायिक स्तर पर मशरूम के प्रकार

1.
आयस्टर मशरूम (प्लुरोटस प्रजाति)

2.
पैरा मशरूम (फुटु ) (वोल्वेरियेला प्रजाति)

3.
सफ़ेद दुधिया मशरूम (केलोसाइबी इंडिका)

4.
सफ़ेद बटन मशरूम (अगेरिकस बाइसपोरस)

इनमें आयस्टर मशरूम उत्पादन की संभावनायें अधिक हैं क्योंकि इसे कृत्रिम रूप से वर्ष भर उगाया जा सकता है। पैरा मशरूम एवं दूधिया मशरूम के प्राकृतिक रूप से व्यापारिक उत्पादन की संभावनायें अपेक्षाकृत कम हैं क्योंकि इसे कम अवधि (चार माह) तक उगाया जा सकता है। पैरा मशरूम उत्पादन के पश्चात इसका शीघ्र विपणन भी एक समस्या है। सफ़ेद बटन मशरूम पर किये गये प्रयोगों से यह स्पष्ट है की ठंड के मौषम में बस्तर के पठारी क्षेत्रों में दो फसल आसानी से ली जा सकती है। इस तरह कृत्रिम रूप से विभिन्न मशरूमों को उगाकर इनकी उपलब्धता को बरसात के अलावा साल भर तक बढ़ाया जा सकता है एवं उपभोक्ताओं की माँग की पूर्ति की जा सकती है।

आयस्टर मशरूम की उन्न्त खेती

आयस्टर मशरूम को सरलता से घरों के बंद कमरों में उगाया जा सकता है। इसके लिये कम जगह की आवश्यकता होती है, इसकी उत्पादन तकनीक सरल व लागत बहुत कम है जिसके माध्यम से समाज का हर वर्ग इसे छोटे से बड़े रूप में उगा सकता है। इसे जुलाई से मार्च तक आसानी से उगा सकते है एवं कई जगहों पर जहां तापमान कम हो, साल भर उगाया जा सकता है। इस मशरूम की उत्पादन क्षमता दूसरे मशरूम की तुलना में सबसे ज्यादा है।

आयस्टर मशरूम इस समय विश्व का दूसरे नंबर का मशरूम है। यह भारतवर्ष में भी उत्पादन की दृष्टि से दूसरे स्थान पर है। आयस्टर मशरूम की उन्नत काश्त को 6 भाँगों में विभाजित किया जा सकता है:

1-बीज (स्पान) तैयार करना

मशरूम का बीज वैज्ञानिक तरीके से तैयार किया जाता है। इन बीजों को बोतल या पालिथिन की थैलियों में 250 या 500 ग्राम/बोतल या थैली भरते है। थैली के मुंह पर पहले लोहे का छल्ला लगाते हैं फिर उसमें रुई की डाट लगाते हैं। बोतल या थैली को जीवनूविहीन करने के लिये आटोक्लेव/कुकुर में 22 पौंड दाब/वर्ग इंच पर 2 घण्टे रखते है। ठंडा होने पर माध्यम में मशरूम बीज (स्पान) मिलातें है। यह कार्य जीवाणुविहीन कक्ष में किया जाता है। मशरूम फफूँद की वृद्धि इन दानों पर 15-20 दिनों में हो जाती है एवं फफूँद के कवकजाल द्वारा सम्पूर्ण दाने ढँक लिये जाते हैं, इसे मशरूम का बीज (मदर स्पान) कहते है। इस प्रकार तैयार बोतलों से बीज दूसरी बोतल में मिलाया जाता है तब इसे प्रथम संतति स्पान कहते हैं।

2-प्लुरोट्स फ्लोरिडा (इंदिरा श्वेता

इसकी खेती जुलाई से अप्रैल तक छत्तीसगढ़ में कर सकते है। इसे उगाने हेतु उपयुक्त तापक्रम 22-280 से.ग्रे. एवं नमी 75-85 प्रतिशत तक होना चाहिए। यह किस्म एकदम सफ़ेद रंग की होती है, जिसके कारण बहुत लोग पसंद करते है। इसके उत्पादन हेतु हल्का प्रकाश (250-300 लक्स) तथा फलन बनने के समय वायु का समुचित आदान-प्रदान वाला कक्ष चाहिये। यह किस्म छ.ग. राज्य के नारायणपुर क्षेत्र में आम के टुकड़ों से एकत्र कर विकसित की गई है। इस किस्म का उत्पादन पैराकुट्टी, गेंहू, भूसा, सोयाबीन भूसा में अच्छा पाया गया है। यह किस्म 2006 में इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर की मशरूम अनुसंधान प्रयोगशाला द्वारा विकसित की गई है एवं छ.ग. राज्य के तीनों कृषि जलवायु क्षेत्रों में उत्पादन हेतु इसकी सिफ़ारिश की गई है।

3-प्लुरोटस सजर-काजू

इसकी खेती जुलाई से अप्रैल तक छत्तीसगढ़ क्षेत्र में आसानी से की जा सकती है। इस प्रजाति के लिए उपयुक्त तापक्रम 20-22 डिग्री से.ग्रे. व नमी 80-90 प्रतिशत तक होना चाहिए। उत्पादन क्षमता औसतन 48.50 प्रतिशत होती हैं। रायपुर में व देश के अन्य भागों में हुये प्रयोगों के दौरान इस किस्म की उपज अन्य क़िस्मों की तुलना में अधिक है।

4-माध्यम का चयन एवं तैयारी

आयस्टर मशरूम को सफलतापूर्वक अनेक प्रकार के कृषि अवशिष्टों या माध्यमों में उगाया जा सकता है जो देश के पूर्वी, पश्चिमी एवं मध्य भागों में अधिक मात्रा में आसानी से उपलब्ध है। देश के पूर्वी भाग, जिसमें छत्तीसगढ़ क्षेत्र प्रमुख है, धान का पुआल प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। मध्यप्रदेश के पश्चिमी भागों में गेहूँ का भूसा व मध्य भागों में सोयाबीन का भूसा आसानी से उपलब्ध है। प्रयोगों के द्वारा धान्य फसलों के उपरोक्त कृषि अवशिष्ट आयस्टर मशरूम की खेती के लिये सर्वोत्तम सिद्ध हुये है। आयस्टर (प्लुरोटस प्रजाति) मशरूम की खेती सेलुलोस, हेमीसेलूलोस एवं लिग्निनयन माध्यमों में की जा सकती है। इसका उत्पादन एवं जैविक क्षमता, प्रयुक्त माध्यम, उसकी किस्म, वातावरण आदि पर निर्भर करता है। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर की मशरूम अनुसंधान प्रयोगशाला द्वारा आयस्टर मशरूम (प्लुरोटस फ्लोरिडा) का उत्पादन कई प्रकार के माध्यमों में किया गया एवं पाया गया की पैरा कुट्टी, सोयाबीन का भूसा, सरसों का भूसा एवं गेहूँ का भूसा इसके उत्पादन हेतु उपयुक्त है। उपरोक्त कृषि अवशिष्टों में लिग्निन, सेलुलोस व हेमीसेलूलोस नामक कार्बनिक पदार्थ बहुतायत रूप में मौजूद होते हैं, जिससे आयस्टर मशरूम अपने कार्बन स्त्रोतों की पूर्ति करता है। उपरोक्त कृषि अवशिष्टों को कटाई के पश्चात अच्छे से भण्डारित करना चाहिये ताकि नमी से दूर रहें। पानी पड़े कृषि अवशिष्टों का प्रयोग ना करें क्योंकि उनमें दूसरे प्रकार की फफूँद उग आती है एवं मशरूम फफूँद की भूसे में वृद्धि ठीक से नहीं हो पाती। 

उपयुक्त माध्यम चयन करने के पश्चात इसे निर्जीवीकृत या जीवाणुरहित करना अत्यंत आवश्यक होता है, ताकि मशरूम फफूँद उक्त माध्यम में प्रभावी ढंग से फैल सके एवं अन्य सूक्ष्मजीव निष्क्रिय हो जाये। अन्य सूक्ष्मजीवों की उपस्थिति में मशरूम फफूँद माध्यम में ठीक से नहीं फैल पाता परिणामस्वरूप कभी-कभी 100 प्रतिशत तक नुकसान हो जाता है। विश्वविद्यालय की मशरूम अनुसंधान प्रयोगशाला में किये गये प्रयोग से स्पष्ट है कि यदि माध्यम को भाप द्वारा, गर्म पानी द्वारा या रसायन द्वारा उपचारित किया जाय तो उत्पादन क्षमता अधिक (103.80-121.20 प्रतिशत) प्राप्त होती है।

5-विधि

गर्म पानी द्वारा :

इस विधि में 10 किलो पैरा कुट्टी या गेहूँ के भूसे (1-2 इंच के टुकड़े) को 100 लीटर पानी में 14-16 घण्टे डुबाकर रखते है जिससे माध्यम नरम हो जाता है जिससे माध्यम नरम हो जाता हैं। पश्चात पानी निथार देते है तथा 2 बाल्टी गर्म खौलता हुआ पानी गीले माध्यम में डालते है। एक घण्टे के बाद पानी निकाल देते है। माध्यम को छायादार साफ जगह पर एक परत में फैला देते है जिससे माध्यम में अतिरिक्त नमी निकाल जाय। जब माध्यम को मुट्ठी में दबाने से पानी न निकले तथा हथेली भी गीली न हो अर्थात माध्यम में 68-72 प्रतिशत नमी हो, तब यह मशरूम बीज मिलाने हेतु उपयुक्त होता है।

रासायनिक विधि द्वारा :

इस विधि में 100 लीटर पानी में 125 मी.ली. फ़ार्मेलिन तथा 7.5 ग्राम बाविस्टीन मिलाकर घोल बनाते है, तत्पश्चात 10 किलो माध्यम (भूसे) को अच्छी तरह से घोल में 14-16 घण्टे के लिये डूबा देते है, बर्तन के मुँह को पालीथिन से ढँक देते है। अब इस गीले हुए माध्यम से घोल निथार देते है तथा उसे पक्के ढालू फर्श पर बिछा देते है ताकि घोल अच्छे से निथर जाये। ध्यान रहे कि भूसा इतना सूखा होना चाहिए कि हाथ से दबाने पर पानी न निकले। इस गीले भूसे का वजन सूखे भूसे की तुलना में तीन फीसदी ज्यादा होना चाहिए।

6-बीजाई

आयस्टर मशरूम उत्पादन के लिये उपयुक्त माध्यम (गेहूँ का भूसा या पैरा कुट्टी) का चयन कर उसमें मशरूम बीज मिलाते है। माध्यम में मशरूम बीज (स्पान) विभिन्न विधियों द्वारा मिश्रित किया जाता है। स्वस्थ बीज देखने में एकदम सफ़ेद, ताजा, सम्पूर्ण दानों को ढँका हुआ, अच्छी किस्म का, अधिक उत्पादन क्षमता वाला होना चाहिये। ताजा बीज सदैव अधिक उपज देता है। बीज मिश्रण 3 प्रतिशत या 30 ग्राम बीज प्रति किलो गीला माध्यम की दर से किया जाता है। बोतल से बीज को निकालने के लिए बोतल को अच्छी तरह से हिलाना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर चम्मच या तार के टुकड़े का प्रयोग किया जा सकता है। बीज को जीवाणुविहीन पैराकुट्टी में साफ-सुथरे स्थान में या पालीथिन शीट पर अच्छे से मिलाया जाता है। मिलाने के पश्चात उपरोक्त आकार की थैलियों में भरकर ऊपर से मुँह बंद कर देते है। थैलियों के आकार का मशरूम उत्पादन पर प्रभाव पड़ता है, जो वि.वि. की मशरूम अनुसंधान प्रयोगशाला में किये प्रयोग से स्पष्ट है। मध्यम आकार की थैलियों (18"X12") में उत्पादन अधिक होता है तथा बड़े आकार (20"X16") एवं छोटे आकार (12"X8") की थैलियों में तुलनात्मक दृष्टि से मशरूम उत्पादन कम पाया गया है। ध्यान रहे थैली का एक चौथाई भाग खाली रहे। थैली के मुँह को रस्सी से बाँध दें और थैले में चारों तरफ सलाई से छेड़ कर दें ताकि थैले के अंदर हवा प्रवेश कर सके।

झोपड़ी की व्यवस्था

झोपड़ी में लकड़ियों के बत्ते से रेक तैयार किये जाते है और इन्ही के माध्यम से थैलियों को लटकाया जाता है। झोपड़ी मिट्टी की, घास-फूस या पत्तियों की तथा पक्की बनी हो सकती है। इसमें सूर्य का प्रकाश अंदर नहीं आना चाहिए परंतु वायु का पर्याप्त आदान-प्रदान होना चाहिए। झोपड़ी में नमी होना अत्यंत आवश्यक है। यह 80-90 प्रतिशत के मध्य होना चाहिये। नमी कम होने की उपस्थिति में पानी का छिडकाव दोहराया जा सकता है। अधिक तापक्रम होने की स्थिति में पानी का छिडकाव जमीन पर व थैलियों पर स्प्रेयर के द्वारा किया जा सकता है। झोपड़ी के अंदर तापक्रम 20-28 डिग्री से.ग्रे. होना चाहिए। आयस्टर मशरूम की वृद्धि के लिये दिन में 15 मिनट के लिये प्रकाश का आना पर्याप्त होता है। कार्बन डाई-आक्साइड की मात्रा झोपड़ी में मशरूम फफूंद के कवकजाल फैलते समय अधिक व खाने योग्य मशरूम निकलते समय कम होना चाहिये। गरम हवा को पंखे द्वारा बाहर निकालने का प्रबंध करना चाहिये। वैसे घास-फूस की बनी झोपड़ी में इस तरह की समस्या नहीं होती है कीटों से बचाव के लिये मशरूम घर में प्रति सप्ताह एक बार नुवान दावा का 0.1 प्रतिशत की दर से (1 मी.ली./लीटर पानी में) फर्श एवं दीवारों पर छिडकाव करना चाहिये। मशरूम घर की प्रतिदिन देखभाल करें। रोग एवं कीट आदि प्रकट होने पर तुरंत उनके नियंत्रण का उपाय करें। मशरूम की स्वछता पर विशेष ध्यान दें। मशरूम को तोड़ते समय मास्क का प्रयोग करें ताकि मशरूम के बीज श्वांस के द्वारा शरीर में प्रवेश न कर सके। 15-20 दिन पश्चात कवक की पैरा कुट्टी में वृद्धि से पूरा थैला सफ़ेद दूधिया रंग का दिखाई देने लगता है, तब थैली को पूर्ण रूप से हटा दें या लम्बाई में थैली को काट दें। इस वक्त दो थैलों के बीच का अंतर 10-12 इंच होना चाहिए।

देखभाल एवं तुड़ाई

अनुकूल स्थिति में थैलों को काटने के 5-6 दिन बाद से ही मशरूम का सिर (पिन हैड) दिखाई पड़ने लगता है जो 3-4 दिन बाद आकार में बढ़कर 5-10 से.मी. का हो जाता है। जब मशरूम उपयुक्त आकार के हो जाये, तब इनकी तुड़ाई करना आवश्यक है। इस स्थिति में ये किनारों से ऊपर की ओर मुड़ने लगते है। तुड़ाई करते समय यह सावधानी बरतें की छोटे बढ़ रहे मशरूम को हानी न पहुँचे। इस प्रकार एक थैले से 3-4 बार तुड़ाई की जा सकती है। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में लगभग 2 माह का समय लगता है। जो इस बात का प्रतीक है कि पैरा को हटाने का समय आ गया है। प्रयोग किए गए पैरा को न फेंकें क्योंकि यह खाद के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। तुड़ाई के पश्चात 8-10 घण्टे के अंदर मशरूम का उपयोग कर लेना चाहिए अन्यथा इसे पालिथीन कि थैली या बाँस कि टोकरी में भरकर रेफ्रीजरेटर में 6-7 दिन तक रखा जा सकता है। मशरूम का अधिक उत्पादन होने पर अनेक संरक्षण विधियों का इस्तेमाल किया जा सकता है।

मशरूम फसल प्रबंधन

आयस्टर मशरूम उत्पादन करते समय निर्जीवीकृत माध्यम में उपयुक्त नमी की अवस्था (68-70 प्रतिशत) में 30 ग्राम बीज/किलो गीला माध्यम की दर से मिलाया जाता है। मिलाने का काम साफ पक्के फर्श पर या साफ पालीथिन की चादर पर किया जाता है। इस मिश्रण को माध्यम आकार (18"X12") की पालीथिन की थैलियों में अच्छे से दबाकर भरा जाता है। थैली का तीन चौथाई भाग ही भरा जाता है तथा शेष एक चौथाई भाग खाली रखते है। थैली के मुँह को रस्सी से अच्छी तरह बाँध देते हैं और थैलियों में नीचे के दोनों कोनों पर 4-5 छेद कर देते हैं ताकि अतिरिक्त पानी इन छिद्रों से निकाल जाय एवं हवा के आवागमन हेतु 5-6 छिद्र थैली में ऊपर कर देते हैं। इन बीज (स्पान) मिश्रित थैलियों को झोपड़ी में लकड़ी की बनी टाडों (रेक) में लटका देते है या फिर नायलोन की रस्सी के माध्यम से 4-5 थैलियों को एक के ऊपर एक विधि से लटका देते है।

झोपड़ी मिट्टी की घास-फूस या पत्तियों की, बाँस की चटाई आदि की बनी हो सकती है। झोपड़ी में सूर्य का सीधा प्रकाश नहीं आना चाहिये तथा तापमान 25-28 डिग्री से.ग्रे., नमी 75-85 प्रतिशत व शुद्ध हवा की समुचित व्यवस्था होनी चाहिये। नमी कम तथा तापमान अधिक होने परपानी का छिडकाव स्प्रेयर द्वारा जमीन तथा झोपड़ी की दीवारों पर अन्दर की तरफ किया जाना चाहिये। थैलियों को झोपड़ी में लटकाने के 15-20 दिनों बाद मशरूम फफूँद का कवकजाल सम्पूर्ण माध्यम में फैल जाता है, जिससे माध्यम सफ़ेद दूधिया रंग का दिखाई देने लगता है। इस समय पालीथिन की थैलियों को काटकर अलग कर देते है। यह मशरूम की वानस्पतिक वृद्धि अवस्था कहलाती है।

पालीथिन की थैली हटाने के पश्चात जो पिंडनुमा संरचना प्राप्त होती है, इसे सुतली या नायलोन की रस्सी से लटका देते है। यह मशरूम की प्रजनन अवस्था होती है। इस अवस्था में थैलियों की उचित देखभाल अत्यंत आवश्यक है। दो पिंडनुमा संरचना के बीच का अंतर 10-12 इंच होना चाहिये। थैली हटाने के 3-4 दिन बाद सफ़ेद गांठनुमा संरचना दिखने लगती है जो फफूँद की बटन अवस्था या पिनहेड अवस्था कहलाती है। यह संरचना 5-7 दिन बाद छत्तेनुमा आकृति की फलनकाय में बदल जाती है। जब फलनकाय के किनारे अन्दर की ओर मुड़ने लगे, तब हल्का घुमाकर उसे तोड़ लेते है। यही मशरूम फफूँद का खाने योग्य भाग होता है।

इस तरह पहली क्रमश: 22-25 दिन में प्राप्त होती है। दूसरी व तीसरी फसल क्रमश: 5 से 7 दिन के अंतर से प्राप्त होती है। इस तरह एक फसल में 45-50 दिन का समय लगता है एवं 4-5 फसलें जुलाई से मार्च माह तक ली जा सकती है। आयस्टर मशरूम को माध्यमों में उगाने के पश्चात उसका उपयोग पुन: स्पान जैसा किया जा सकता है परन्तु इसकी उपज अपेक्षाकृत कम होती है। ध्यान रहे की मशरूम उत्पादित माध्यम उपज के लिए अधिक श्रेष्ठ नहीं है, किन्तु स्पान की उपलब्धता न होने की स्थिति में उत्पादक इसका प्रयोग करते है।